Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 5
गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके |
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् || 5 ||
अर्थात अर्जुन कहते हैं, महानुभाव गुरु जनों को न मारकर में भिक्षा का अन्न खाना भी कल्याण कारक मानता हूं! गुरुजनों को मार कर यहां खून से सना देखकर तथा धन की कामना के मुख्यता वाले भोगों को ही तो भोगूँगा।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 5 Meaning in hindi
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके : (क्यों अर्जुन ने भिक्षा को गुरुओं की हत्या से श्रेष्ठ माना?)
अर्जुन अपना पक्ष ध्यान में रखते हुए कहता है कि यदि मैं भीष्म, द्रोण आदि पूज्यों से युद्ध नहीं करूंगा तो दुर्योधन भी अकेले मुझसे युद्ध नहीं करेगा। इस प्रकार यदि युद्ध न हुआ तो मुझे राज्य नहीं मिलेगा, अतः मुझे कष्ट भोगना पड़ेगा। मेरी आजीविका भी कठिन हो जायेगी। इसका अर्थ यह भी है कि क्षत्रिय को जीविका के लिए भिक्षादान भी स्वीकार करना पड़ सकता है, जो कि वर्जित है। परंतु गुरुओं का वध करने की अपेक्षा मैं उस कष्टपूर्ण दान को भी स्वीकार करना अधिक श्रेयस्कर समझता हूं।
इह लोके:
इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि भिक्षा मांगकर खाने से मुझे इस संसार में अपमान और तिरस्कार मिलेगा तथा लोग मेरी निन्दा करेंगे, तथापि भिक्षा मांगना गुरुजन को मारने से श्रेष्ठ है।
अपि :
उसका तात्पर्य यह है कि मेरे लिए अपने गुरुजनों का वध करना निषिद्ध है और भिक्षा मांगना भी निषिद्ध है, लेकिन इन दोनों में से मुझे गुरुओं की हत्या करना अधिक वर्जित लगता है।
यह भी पढ़ें : क्या कायरता धर्म स्वर्ग और यश से वंचित कर सकती है?
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुञ्जीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् :
अब भगवान के वचन को देखते हुए अर्जुन आगे कहते हैं, आपकी आज्ञा के अनुसार में युद्ध करूं तो युद्ध में गुरुजनों की हत्या के परिणाम रूप में उनके खून से सने हुए शरीर देखूंगा और जिन में धन विगीरे की कामना ही मुख्य होगी। ऐसे भोगों को ही तो भोगूँगा! मुझे भोग तो मिलेंगे वह भोग मिलने से मुक्ति थोडी होगी? शांति थोडी प्राप्त होगी?
भगवान के वचनों में ऐसी विलक्षणता है कि, वे अर्जुन के भीतर अपना प्रभाव डालते जा रहे हैं, जिससे अर्जुन को युद्ध न करने के अपने निर्णय पर संदेह बढ़ रहा है। ऐसी स्थिति में पहुँचे अर्जुन आगे कहते हैं।
Bhagavad Gita Chapter 2 Verse 5 Meaning in hindi (Video)
FAQs
अर्जुन गुरुओं को मारने से क्यों संकोच कर रहे हैं?
अर्जुन को यह युद्ध धर्म और कर्तव्य के बीच का संघर्ष प्रतीत हो रहा है। वे अपने गुरुजनों की हत्या को अधर्म मानते हैं और इसे आत्मिक दृष्टिकोण से बहुत बड़ा पाप समझते हैं। वे कहते हैं कि यदि युद्ध में विजय पाकर उन्हें राज्य भी मिले, तो वह खून से सने भोग होंगे।
क्या अर्जुन क्षत्रिय धर्म का त्याग करने की बात कर रहे हैं?
नहीं, अर्जुन धर्म का त्याग नहीं कर रहे, बल्कि वह अपने धर्म के भीतर ही नैतिक और आध्यात्मिक दुविधा में हैं। वे सोचते हैं कि धर्म पालन के नाम पर गुरुजनों की हत्या उचित नहीं है।
इस श्लोक से क्या शिक्षा मिलती है?
यह श्लोक धर्म, नैतिकता, और आत्मिक विवेक के बीच संतुलन की शिक्षा देता है। अर्जुन की दुविधा हमें यह सोचने पर विवश करती है कि जीवन में केवल कर्म करना ही नहीं, बल्कि उसका उद्देश्य और पृष्ठभूमि भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।
भिक्षा मांगने जैसा कष्ट आज के संदर्भ में क्या हो सकता है?
आज के संदर्भ में इसका मतलब है एक ऐसा जीवन चुनना जो शायद आर्थिक रूप से कमज़ोर या साधारण हो, लेकिन नैतिक रूप से संतोषजनक हो। जैसे कोई व्यक्ति करप्शन से बचने के लिए कम वेतन वाली नौकरी स्वीकार कर ले—ये अर्जुन के ‘भिक्षा’ विकल्प जैसा ही है।
क्या अर्जुन की तरह प्रश्न करना गलत है?
बिल्कुल नहीं! यह श्लोक सिखाता है कि प्रश्न करना, दुविधा में पड़ना और सही निर्णय के लिए सोच-विचार करना आवश्यक है। अर्जुन युद्ध करने से पहले सवाल करता है, और यही उसे एक सच्चा योद्धा और ज्ञानी बनाता है।