
Bhagavad gita Chapter 2 Verse 53
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला |
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि || 53 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, जिस समय शास्त्रीय मतभेदों से विचलित हुई तुम्हारी बुद्धि निश्चल हो जाएगी और परमात्मा में अचल हो जाएगी, उस समय तुम योग को प्राप्त हो जाओगे।
Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 53 Meaning in hindi
जब सही-गलत समझ न आए, तब क्या है सच्चा योग?
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि
अर्जुन के मन में यह श्रुतिविप्रतिपन्न (सुने हुए विपरीत ज्ञान) है कि गुरु और कुल का नाश करना उचित नहीं है, तथा क्षात्र धर्म का त्याग करना (युद्ध करना) भी उचित नहीं है। एक ओर कुल की रक्षा करना तथा दूसरी ओर क्षात्र धर्म का पालन करना – यदि वह कुल की रक्षा करेगा तो युद्ध नहीं होगा और यदि वह युद्ध करेगा तो कुल की रक्षा नहीं होगी – इन दोनों ही बातों में अर्जुन को श्रुतिविप्रतिपन्नता है, जिसके कारण उसकी बुद्धि विचलित हो रही है। इसलिए भगवान् बुद्धि को शास्त्रभेद के विषय में स्थिर रहने तथा परमात्मा प्राप्ति के विषय में स्थिर रहने की प्रेरणा देते हैं।
प्रथम तो साधक के मन में यह संशय होता है कि क्या उसे सांसारिक कार्य ठीक से करने चाहिए अथवा परमात्मा को प्राप्त करना चाहिए?
तब वह निश्चय करता है कि उसे केवल संसार की सेवा करनी है, संसार से कुछ भी नहीं लेना है। ऐसा निश्चय होते ही साधक भोगों से विरक्त होने लगता है और संसार की सेवा में लग जाता है, इसके पश्चात जब साधक परमात्मा की ओर अग्रसर होता है, तो साध्य और साधन के विषय में अनेक शास्त्र सम्मत मतभेद उसके सामने आ जाते हैं। अतः ‘कौन-सा साध्य ग्रहण करूं और कौन-सी साधन-पद्धति अपनाऊं’, यह निश्चय करना बहुत कठिन हो जाता है। परंतु जब साधक सत्संग के द्वारा अपने हित, श्रद्धा और उपयुक्तता का निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न कर पाने पर भगवान की शरण में जाकर उनका आह्वान करता है, तब भगवान की कृपा से उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है। दूसरे, सभी शास्त्रों, संप्रदायों आदि में आत्मा, संसार और परमात्मा- इन तीनों का भिन्न-भिन्न रूप बताया गया है। यदि विचारपूर्वक देखें, तो आत्मा का रूप चाहे जो भी हो, परंतु मैं आत्मा हूं- इस विषय में सभी एकमत हैं, और संसार का स्वरूप कैसा भी हो, पर हमें संसार को छोड़ना है – इस विषय में सभी एकमत हैं! और परमात्मा का स्वरूप कैसा भी हो, पर हमें उसे पाना है – इस विषय में सभी एकमत हैं। ऐसा निश्चय करने से साधक की बुद्धि स्थिर हो जाती है। मुझे परमात्मा को ही प्राप्त करना है – ऐसा दृढ़ निश्चय होने से बुद्धि अचल हो जाती है। तब साधक को सहज ही योग की प्राप्ति हो जाती है – परमात्मा के साथ शाश्वत योग की।
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शास्त्र सम्मत निर्णय करने में या अपना कल्याण निश्चित करने में जितनी अधिक त्रुटियाँ होती हैं, उतना ही अधिक समय लगता है। परन्तु इन दोनों में जब बुद्धि स्थिर और अविचल हो जाती है, तब परमात्मा से शाश्वत मिलन का अनुभव होता है।
क्या योग का अर्थ है मतभेदों से ऊपर उठना?
यहाँ “तदा योगमवाप्स्यसि” शब्दों से जिस योग की प्राप्ति बताई गई है, वह यह योग नहीं है जो पहले परब्रह्म से वियोग था, वह वियोग दूर हो गया और योग साकार हो गया, अपितु असत् पदार्थों के साथ भ्रांतिपूर्वक माने हुए सम्बन्ध का पूर्णतया पृथक हो जाना ही ‘योग’ कहलाता है, अर्थात् मनुष्य की जो वास्तविक स्थिति (परब्रह्म के साथ शाश्वत योग) है, उसमें स्थिर रहना ही ‘योग’ कहलाता है। वह वास्तविक स्थिति इतनी विलक्षण है कि उससे कभी पृथकता नहीं होती, उसके होने की कोई सम्भावना ही नहीं है। उसके लिए ‘संयोग’, ‘वियोग’, ‘योग’ आदि कोई शब्द लागू नहीं होते, केवल असत् के साथ माने हुए सम्बन्ध के त्याग को ही यहाँ ‘योग’ संज्ञा दी गई है। वस्तुतः यह योग नित्य योग का प्रतिरूप है। यह शाश्वत योग, यदि कर्म (सेवा) के माध्यम से प्राप्त किया जाए तो ‘कर्म योग’ कहलाता है, यदि विवेक के माध्यम से प्राप्त किया जाए तो ‘ज्ञान योग’, यदि प्रेम के माध्यम से प्राप्त किया जाए तो ‘भक्ति योग’, यदि संसार के विलयन के चिंतन के माध्यम से प्राप्त किया जाए तो ‘लय योग’, यदि प्राणायाम के माध्यम से प्राप्त किया जाए तो ‘हठ योग’, तथा यदि यमनायम् आदि आठ अंगों के माध्यम से प्राप्त किया जाए तो ‘अष्टांग योग’ कहलाता है।
अर्जुन स्थिर बुद्धि वाले उस पुरुष के विषय में आगे प्रश्न करते हैं, जिसने आसक्ति-मोह रूपी कीचड़ और श्रुतिविप्रतिपत्त (श्रवण के विपरीत ज्ञान) को दूर करके योग को प्राप्त कर लिया है।
FAQs
क्या योग सिर्फ ध्यान और आसनों तक सीमित है?
नहीं, गीता के अनुसार योग का असली अर्थ है—बुद्धि की स्थिरता और मतभेदों से ऊपर उठकर आत्मा और परमात्मा से जुड़ना।
क्या मानसिक उलझनों से मुक्त होना ही सच्चा योग है?
हाँ, जब बुद्धि शास्त्रों के विरोधाभासों से विचलित न होकर परम सत्य पर स्थिर हो जाती है, तब ही सच्चा योग प्राप्त होता है।
क्या रोज़मर्रा की उलझनों में भी योग संभव है?
बिल्कुल, जब हम निर्णयों में स्पष्टता और अंतरात्मा की शांति बनाए रखते हैं, तो यही आज के जीवन में “स्थिर बुद्धि” का योग है।
मतभेदों से ऊपर उठना कैसे योग से जुड़ा है?
गीता कहती है कि जब साधक की बुद्धि ‘श्रुतिविप्रतिपन्न’ यानी सुनी-सुनाई भिन्न बातों से विचलित न होकर परमात्मा पर केंद्रित हो जाती है, तभी वह सच्चे योग को प्राप्त करता है।