
Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 15
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते || 15 ||
अर्थात भगवान कहते हैं, हे पुरुषों में श्रेष्ठ अर्जुन! सुख-दुख में समान रहने वाले जो धीर मनुष्य को यह मात्रास्पर्श (पदार्थ) व्यथा नहीं पहुंचते, वे अमर होने में समर्थ हो जाते हैं, अर्थात अमर बन जाते हैं।
Shrimad Bhagavad Geeta Chapter 2 Shloka 15 Meaning in hindi
पुरुषर्षभ :
मनुष्य ज्यादा करके परिस्थितियों को बदलने का सोचता है, जो कभी बदली नहीं जा सकती और जिनका बदलना संभव ही नहीं। युद्ध रूपी स्थिति प्राप्त होने से अर्जुन ने इसे बदलने का विचार न करके अपने कल्याण का विचार कर लिया है। यह कल्याण का विचार करना ही मनुष्य में उनकी श्रेष्ठ है।
समदुःखसुखं धीरम :
धीर मनुष्य सुख दुख में समान रहता है, अंत: करण की वृति से ही सुख और दुख यह दोनों अलग-अलग दिखते हैं। सुख-दुख को भोगने में पुरुष (चेतन) कारण है और खुद कारण बनते हैं। प्रकृति में स्थित होने से जब वह अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तब सुख-दुख भोगने वाला कोई रहता ही नहीं। ऐसे खुद, खुद में स्थित होने से सुख-दुख में सहजता से सामान बन जाते हैं।
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं :
मनुष्य के लिए न केवल प्रकृति की भौतिक वस्तुएं दुःख का कारण बनती हैं, बल्कि प्राकृतिक वस्तुओं के साथ जुड़ने से जो सुख मिलता है वह भी दुःख है, और उन वस्तुओं से वियोग होने से जो दुःख मिलता है वह भी दुःख है। परन्तु जिसकी दृष्टि समता की ओर लगी हुई है, उसे ये प्राकृतिक वस्तुएं न तो खुश कर सकती हैं और न ही दुखी। समता की ओर दृष्टि रखने से उस सुख को उसकी सुविधा के कारण जान तो लिया जाता है, परंतु उसका अनुभव न करने से उस सुख के संस्कार हृदय में स्थायी रूप से नहीं आते। इसी प्रकार, जब विपत्ति आती है, तो पीड़ा का एहसास तो होता है, लेकिन उसका अनुभव न करने से मन उस पीड़ा के साथ स्थायी रूप से जुड़ नहीं पाता। इस प्रकार वह सुख-दुःख के संस्कारों का अनुभव न करके व्यथित नहीं होता। तात्पर्य यह है कि अपने हृदय में सुख-दुःख का ज्ञान होने से मनुष्य सुखी या दुःखी नहीं होता।
यह भी पढ़ें : क्या भगवान से मार्गदर्शन मांगना ही सच्चा समर्पण है?
सोऽमृतत्वाय कल्पते :
ऐसा धैर्यवान व्यक्ति अमरत्व के योग्य हो जाता है, अर्थात उसमें अमरत्व प्राप्त करने की क्षमता आ जाती है। शक्ति और योग्यता के आगमन से व्यक्ति अमर हो जाता है, इसमें विलम्ब की कोई गुंजाइश नहीं रहती। क्योंकि इसकी अमरता स्वयंसिद्ध है। केवल पदार्थ के संयोग वियोग से खुद में जो विकार मानते हैं, यही भूल थी।
अब तक देह देही का जो विवेचन हुआ है, उसे भगवान दूसरे शब्दों में अगले तीन श्लोक में कहते हैं।
FAQs
तनाव और कठिन समय में मन शांत कैसे रखें?
भगवद गीता के अनुसार, जो व्यक्ति सुख-दुख में समान भाव रखता है, वही सच्चा धीर होता है। कठिन परिस्थितियों में प्रतिक्रिया देने के बजाय स्थिर मन बनाए रखना ही आत्मबल की निशानी है।
जीवन में स्थिरता कैसे लाएं जब चीजें हमारे नियंत्रण में नहीं होतीं?
गीता कहती है कि कई परिस्थितियाँ बदल नहीं सकतीं, लेकिन हमारी प्रतिक्रिया बदल सकती है। जो मनुष्य स्थिति के बजाय अपने दृष्टिकोण को बदलता है, वही श्रेष्ठ बनता है।
क्या सुख के पीछे भागना भी दुख का कारण बन सकता है?
बिल्कुल। गीता के अनुसार, जो व्यक्ति सुख पाने की इच्छा से बंधा होता है, वही वस्तु के वियोग में दुखी होता है। समभाव रखने वाला व्यक्ति न तो सुख में बहकता है, न दुख में टूटता है।
क्या सुख-दुख में समान रहना ही अमरता का मार्ग है?
हां, भगवद गीता के अनुसार, जो व्यक्ति सुख और दुख में समान भाव रखता है, वही आत्मिक शांति और मोक्ष (अमरता) का अधिकारी बनता है। समभाव जीवन में स्थिरता लाकर आत्मविकास का मार्ग खोलता है।