भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपमान से क्यों डराया?

Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 35 36

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा: |
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् || 35 ||

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता: |
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दु:खतरं नु किम् || 36 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, महारथी लोग तुझे भय के कारण युद्ध से उपराम हुआ मानेंगे, जिनकी धारणा में तू बहुमान्य हो चुका है, उन्हीं की दृष्टि में तु लघुता को प्राप्त हो जाएगा, तुम्हारे शत्रु तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करें बिना रहेंगे नहीं, और न कहने योग्य कितने ही वचन कहेंगे, इससे ज्यादा और दुख की क्या बात होगी?

भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपमान से क्यों डराया?

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 35 36 Meaning in hindi

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथा:

आप सोचते हैं कि मैं केवल अपने लाभ के लिए युद्ध से ऊपर उठ गया हूँ, लेकिन यदि ऐसा होता और आप युद्ध को पाप मानते, तो आप पहले से ही एकांत में रह रहे होते, भजन गा रहे होते, और आप युद्ध में सक्रिय नहीं होते। लेकिन आप एकांत में नहीं रहे, बल्कि युद्ध में संलग्न हो गए हैं। अब यदि तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ तो बड़े-बड़े योद्धा यही मानेंगे कि अर्जुन युद्ध में मारे जाने के भय से ही युद्ध से निवृत्त हुआ है। यदि तुम धर्म के विषय में सोच रहे होते तो युद्ध से निवृत्त न होते, क्योंकि युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है, अतः तुम मृत्यु के भय से युद्ध से निवृत्त हो रहे हो।

येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम् 

भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, शल्य आदि महारथियों की दृष्टि में आप अत्यन्त आदरणीय हो गये हैं। इसका अर्थ यह है कि उनके मन में यह विश्वास है कि अर्जुन ही युद्ध के लिए प्रसिद्ध योद्धा है। तुमने अनेक दैत्यों, देवताओं, गन्धर्वों आदि को युद्ध में पराजित किया है। यदि अब तुम युद्ध से निवृत्त हो जाओ तो उन महारथियों से हीन हो जाओगे अर्थात् उनकी दृष्टि में तुच्छ हो जाओगे।

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अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिता: निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं भगवान कृष्ण ने अर्जुन को अपमान से क्यों डराया?

‘अहित’ नाम शत्रु का है, जो हानि पहुँचाता है। आपके शत्रु दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण आदि यद्यपि आपका उनसे कोई द्वेष नहीं रखने के बावजूद भी वे आपसे द्वेष रखते हैं और आपको हानि पहुँचाने पर तुले हुए हैं। वे आपकी ताकत जानते हैं, कि आप एक महान योद्धा हैं। हालांकि वे यह जानते हैं, फिर भी वे आपकी ताकत की आलोचना करेंगे और कहेंगे कि आप तो हिजड़े हो। देखो यह युद्ध के अवसर पर तो अलग ही हो गया! अब क्या यह हमारा सामना कर सकता है? क्या वह हमारे साथ युद्ध कर सकता है? इस तरह, वे आपको चोट पहुँचाने और आपके दिल में जलन पैदा करने के लिए अनगिनत अकथनीय शब्द कहेंगे। आप उनके वादे कैसे सहन कर सकते हैं?

ततो दु:खतरं नु किम्

इससे बड़ा और भयानक दुःख और क्या हो सकता है? क्योंकि यह देखा गया है कि जब मनुष्य तुच्छ लोगों द्वारा तिरस्कृत होता है, तो वह अपना तिरस्कार सहन नहीं कर पाता और अपनी क्षमता व पराक्रम से परे कार्य करते हुए मर जाता है। इसी प्रकार, जब आपके शत्रु आपका पूरी तरह से अन्यायपूर्वक तिरस्कार करेंगे, तो आप इसे सहन नहीं कर पाएंगे और क्रोधित होकर युद्ध में कूद पड़ेंगे। तुम बिना लड़े नहीं रहोगे. अभी तो आप युद्ध से बच रहे हैं, लेकिन जब समय आएगा, आप युद्ध में कूद पड़ेंगे, तब आपकी कितनी आलोचना होगी? आप उस बदनामी को कैसे सहन कर सकते हैं?

पिछले चार श्लोक में युद्ध नहीं करने से जो जो हानि होने वाली है वह भगवान बता कर अब अगले दो श्लोक में युद्ध करने से होने वाले लाभ बताते हैं।

FAQs

भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को क्या संदेश दे रहे हैं इन श्लोकों में?

श्रीकृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं कि यदि वह युद्ध से पीछे हटता है, तो लोग उसे कायर समझेंगे और उसकी वीरता पर संदेह करेंगे। इससे उसका सम्मान खत्म हो जाएगा और आलोचना का शिकार होगा।

“युद्ध” का आधुनिक अर्थ क्या है इन श्लोकों के संदर्भ में?

यहां “युद्ध” का अर्थ जीवन के संघर्षों, करियर में चुनौतियों, या किसी नैतिक जिम्मेदारी से है। डर के कारण पीछे हटना आपको अपने आत्मसम्मान और पहचान से वंचित कर सकता है।

यदि लोग मेरी आलोचना करें, तो क्या मुझे प्रतिक्रिया देनी चाहिए?

गीता कहती है कि आलोचना से डरना नहीं चाहिए। यदि आप अपने कर्तव्य पर अडिग हैं, तो आलोचना केवल आपकी परीक्षा है, न कि आपकी असफलता।

क्या डर के कारण फैसले लेना सही है?

नहीं, गीता सिखाती है कि निर्णय भय से नहीं, बल्कि धर्म और कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए लेना चाहिए।

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