क्या बिना ज़िम्मेदारी निभाए जीना बेकार है? जानिए गीता का नजरिया

क्या बिना ज़िम्मेदारी निभाए जीना बेकार है? जानिए गीता का नजरिया

Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 16

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य: |
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति || 16 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, हे पार्थ! जो मनुष्य इस संसार में परम्परागत रूप से प्रचलित सृष्टि चक्र का पालन नहीं करता, वह जो अपनी इन्द्रियों के द्वारा संसार के सुखों का भोग करता है, जो अधूरा और पापमय जीवन जीता है, वह इस संसार में व्यर्थ ही जीता है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 3 Shloka 16 Meaning in hindi

क्या कठिन समय में भी कर्तव्य निभाना ही सच्चा धर्म है?

पार्थ 

नौवें श्लोक में आरंभ किए गए प्रसंग का समापन करते हुए भगवान यहां अर्जुन को ‘पार्थ’ कहकर संबोधित करते हैं, मानो कह रहे हों कि तुम उसी पृथा (कुंती) के पुत्र हो, जिसने जीवन भर कष्ट सहकर भी अपना कर्तव्य निभाया। इसलिए तुम्हें भी अपने कर्तव्य में लापरवाही नहीं करनी चाहिए। जिस युद्ध को तुम दुःखद कर्म कह रहे हो, वह तुम्हारे लिए दुःखद कर्म नहीं, बल्कि एक यज्ञ (कर्तव्य) है। इसे करना सृष्टि के स्वभाव के अनुसार आचरण करना कहलाता है और इसे न करना सृष्टि के स्वभाव के अनुसार आचरण न करना कहलाता है।

क्या एक व्यक्ति का कर्म पूरी सृष्टि को प्रभावित करता है?

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:

जिस प्रकार रथ के पहिये का एक छोटा-सा भाग टूट जाने से रथ के सभी भागों के साथ-साथ उस पर बैठे रथी और सारथी को भी झटका लगता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति चौदहवें और पंद्रहवें श्लोक में वर्णित सृष्टि के नियमों का पालन नहीं करता, वह संपूर्ण सृष्टि के संचालन में बाधा डालता है। संसार और व्यक्ति दो (अलग-अलग) चीजें नहीं हैं। जिस प्रकार शरीर का अपनी इन्द्रियों से और इन्द्रियों का शरीर से घनिष्ठ संबंध है, उसी प्रकार संसार का व्यक्ति से और व्यक्ति का संसार से घनिष्ठ संबंध है। जब व्यक्ति काम, ममता, आसक्ति और अहंकार को त्यागकर अपना कर्तव्य निभाता है, तो संपूर्ण सृष्टि में सुख अपने आप ही पहुंच जाता है।

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क्या इन्द्रियों के पीछे भागना हमें पतन की ओर ले जाता है?

ईन्द्रियाराम

जो मनुष्य कामना, ममता, आसक्ति आदि से युक्त होकर इन्द्रियों के द्वारा सुख भोगता है, उसे यहाँ सुख भोगने वाला कहा गया है। ऐसा मनुष्य पशु से भी नीचा है, क्योंकि पशु नया पाप नहीं करता, प्रत्युत पूर्व में किये गये पापों का फल भोगकर पवित्रता की ओर जाता है, किन्तु ‘इन्द्रिय-लोलुप’ मनुष्य नये-नये पाप करके अधोगति की ओर जाता है तथा साथ ही सृष्टि के चक्र में बाधा उत्पन्न करता है और सम्पूर्ण सृष्टि को दुःख पहुँचाता है।

क्या सिर्फ भोग में लिप्त जीवन पापमय बन जाता है?

अघायु

जो व्यक्ति सृष्टि के मार्ग पर नहीं चलता, उसका जीवन पूरी तरह से पापमय होता है। क्योंकि जो व्यक्ति इन्द्रियों के माध्यम से भोगों में लिप्त रहता है, वह हिंसा के पाप से बच नहीं सकता। जो व्यक्ति स्वार्थी, अहंकारी होता है, तथा भोग-विलास और संग्रह की इच्छा रखता है, वह दूसरों को हानि पहुँचाता है, इसलिए ऐसे व्यक्ति का जीवन पापमय हो जाता है।

क्या बिना ज़िम्मेदारी निभाए जीना बेकार है? जानिए गीता का नजरिया

मोघं पार्थ स जीवति

सभ्य भाषा में अपने कर्तव्य का पालन न करने वाले व्यक्ति की निंदा या फटकार करते हुए भगवान कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति इस संसार में व्यर्थ ही जीता है, अर्थात मर जाए तो अच्छा! तात्पर्य यह है कि यदि वह अपने कर्तव्य का पालन करके सुख नहीं पहुंचाता, तो कम से कम दुख तो नहीं पहुंचाये। जैसे भगवान श्री राम के वनवास के समय अयोध्या आए चित्रकूट के जंगली लोग, कोल, किरात, भील आदि ने उनसे कहा कि हम आपके वस्त्र और बर्तन नहीं चुराते, यही हमारी बड़ी सेवा है, उसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन न करके कम से कम सृष्टि के चक्र में बाधा नहीं डालता, तो यही उसकी सेवा है।

जो मनुष्य संसार से सम्बन्ध विच्छेद करने के लिए अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, उसकी इस श्लोक में निन्दा की गई है। किन्तु जो महापुरुष अपने कर्तव्य का पालन करके संसार से सम्बन्ध विच्छेद कर लेता है, उसकी स्थिति का वर्णन भगवान् अगले दो श्लोकों में करते हैं।

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