क्या समता ही कर्म-कुशलता है? गीता श्लोक 2/50 का महत्व

क्या समता ही कर्म-कुशलता है? गीता श्लोक 2/50 का महत्व

Bhagavad gita Chapter 2 Verse 50

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते |
तस्माद्योगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् || 50 ||

अर्थात भगवान कहते हैं, बुद्धि समता से युक्त मनुष्य यहां जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनों का त्याग कर देता है। इसीलिए तुम योग समता में जुड़ जाओ, क्योंकि योग ही कर्मों में कुशलता है।

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 2 Shloka 50 Meaning in hindi

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते [ कमल के पत्ते जैसा जीवन क्या मतलब है? ]

समतायुक्त व्यक्ति जीते जी अच्छे-बुरे कर्मों का त्याग कर देता है, अर्थात् उसे अच्छे-बुरे कर्मों का अनुभव नहीं होता, वह उनसे मुक्त हो जाता है। जैसे संसार में अच्छे-बुरे कर्म होते रहते हैं, परंतु सर्वव्यापी ईश्वर को अच्छे-बुरे कर्मों का अनुभव नहीं होता, वैसे ही जो समता में स्थित रहता है, उसे अच्छे-बुरे कर्मों का अनुभव नहीं होता (गीता Ch. 2/38)। समता ऐसी विधि है, जिससे मनुष्य संसार में रहते हुए भी संसार से सर्वथा विरक्त रह सकता है। जैसे कमल का पत्ता जल से उत्पन्न होता है और जल में ही रहता है, फिर भी वह जल में आसक्त नहीं होता, वैसे ही समतायुक्त व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार से विरक्त रहता है। अच्छे-बुरे कर्म उसे स्पर्श नहीं करते, अर्थात वह अच्छे-बुरे कर्मों से अनासक्त हो जाता है।

वास्तव में यह आत्मा (चेतना) पाप से मुक्त ही है। यह केवल शरीर आदि असत पदार्थों के साथ संगति करने से ही पाप बन जाती है। यदि यह असत पदार्थों के साथ संगति न करे तो यह आकाश की तरह अनासक्त रहेगी, पाप नहीं बनेगी।

यह भी पढ़ें : क्या भोग और ऐश्वर्य ईश्वर से दूर कर देते हैं?

तस्माद्योगाय युज्यस्व [ राग-द्वेष से ऊपर उठकर कैसे पाएं मानसिक शांति? ]

इसलिए तुम्हें योग से जुड़ना चाहिए, अर्थात् निरंतर समता में स्थित रहना चाहिए। वास्तव में समता तुम्हारा स्वभाव है। इसलिए तुम सदैव समता में स्थित रहते हो। राग-द्वेष के कारण ही तुम उस समता का अनुभव नहीं कर पाते। यदि तुम सदैव समता में स्थित न रहते तो सुख-दुःख को कैसे जान पाते? क्योंकि वे दोनों भिन्न हैं। जब तुम्हें दोनों का ज्ञान हो जाता है, तब तुम उनके आने-जाने में स्थिर रहते हो। उसी समता का अनुभव करो।

योग: कर्मसु कौशलम् [ कर्म में योग ही कुशलता है – इस सोच का फायदा क्या है? ]

कर्म में योग ही एकमात्र कुशलता है अर्थात् कर्म की सफलता या असफलता में तथा उस कर्म के फल की प्राप्ति या अप्राप्ति में सम रहना ही एकमात्र कर्म कुशलता है। जो कर्म उत्पत्ति और विनाश के अधीन है, उसमें योग से बढ़कर अन्य कोई महत्वपूर्ण वस्तु नहीं है।

इस श्लोक को पुष्ट करने के लिए भगवान अगले श्लोक में उदाहरण देते है।

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FAQs

क्या समता का भाव रोजमर्रा की जिंदगी में मदद करता है?

हां, समता का भाव रोजमर्रा की जिंदगी में बहुत सहायक है। इससे हम तनाव, क्रोध और अनावश्यक चिंता से मुक्त रहते हैं और हर परिस्थिति में शांति और स्थिरता बनाए रखते हैं

गीता का यह श्लोक आज के समय में कैसे प्रासंगिक है?

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में लोग तनाव और असंतुलन का शिकार हो जाते हैं। इस श्लोक के अनुसार, समता और योग से जुड़कर हम हर काम में दक्षता (efficiency) और शांति बनाए रख सकते हैं।

भगवद गीता क्यों पढ़नी चाहिए?

गीता से हमें जीवन में सही दृष्टिकोण, मानसिक शांति और सफलता पाने की प्रेरणा मिलती है।

भगवद गीता का कौन सा श्लोक सबसे प्रसिद्ध है?

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” (अध्याय 2, श्लोक 47) सबसे प्रसिद्ध श्लोकों में से एक है।

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